hindisamay head


अ+ अ-

निबंध

रिशवत

प्रतापनारायण मिश्र


क्या कोई ऐसा भी विचारशील पुरुष होगा जो रिश्‍वत को बुरा न समझे? एक ने तो सैकड़ों कष्‍ट उटा के, मर खप के धन उपार्जन किया है, दूसरा उसे सहज में लिए लेता है, यह महा अनर्थ नहीं तो और क्या है? हमारी समझ में तो जैसे चोरी करना, डाका डालना और जुवा खेलना है वैसा ही एक यह भी है। कदाचित् कोई कहे कि चोर डाकू और जुवारी जिसका स्‍वत्‍वहरण करते हैं उसका कोई काम नहीं करते, तो हम पूछते हैं कि क्या घूस खाने वाला अपने कर्तव्‍य से कुछ अधिक भी करता है? यदि करता है तो अन्‍याय करता है, और कुछ न सही तो अपने निज स्‍वामी को धोखा देता है और भोले भाले अर्थियों (गरजमंदों) को वृथा धमकाता है और उन्‍हें किसी प्रकार की हानि का डर दिखलाता है। यह क्या कम अँधेर है? बरंच चोर इत्‍यादि से इतनी दुष्‍टता और निर्लज्‍जता अधिक होती है कि वे डरते-डरते पराया घर घालते हैं और यह "उलटा चोर कुतवाले डाँटे" का लेखा करता है।

यद्यपि रिशवत देना भी अच्‍छा नहीं, क्‍योंकि अनर्थकारी को किसी प्रकार की सहायता देना, जिससे कि वह अपने दुष्‍टाचारण के लिए पुनर्बार और अधिकतर उत्‍साहित हो, यह भी एक अनर्थ ही है। परंतु यह (रिशवत देने वाला) लेने वाले के समान वाले दोषी नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि वह मानहानि, धनहानि आदिक के भय बिना ऐसा नहीं करता और यह सभी जानते हैं कि "आरत काह न करै कुकर्मू।"

बहुधा रिशवत वही लोग लेते हैं जिनको अपने धनोपार्जित धन पर संतोष नहीं होता, और लोभ की अधिकता के कारण जिन्‍हें न्‍याय अन्‍याय का विचार नहीं रहता। और देते भी वही हैं जो या तो अपना दुष्‍टकृत्‍य छिपाया चाहते हैं या किसी को झूठा दोष लगा के पीड़ित किया चाहते हैं। अथवा यों कहो कि जिन्‍हें अतना साहस नहीं होता कि किसी नीतिमान सामर्थी के आगे अपना वा औरों का दु:ख और दुर्गुण ठीक-ठीक प्रकट कर सकें। सारांश यह कि नीति, बुद्धि और धर्म के यह काम निस्‍संदेह विरुद्ध है।

पर हां! बड़े खेद का स्‍थान है कि कुछ दिनों से हमारे देश में इसका ऐसा प्रचार हो गया है कि मूर्खों की कौन कहै पढ़े लिखे लोग भी इसप्रकार प्रत्‍यक्ष पाप से किंचिन्‍मात्र लज्‍जा और घृणा नहीं करते। कितने ही सेवावृतौ (नौकरीपेशा) लोगों के तो यह हराम की हड्डी ऐसी दाँत लग गई है कि वे एक अधिक वेतन की जगह छोड़ के, मेरी तेरी खुशामद करके, बरंच कुछ अपनी गाँठ से पूज के इसी "बालाई आमदनी" के लिए थोड़े से मासिक पर नियत हो जाने ही को बड़ी चतुरता समझते हैं। हम बहुतों को प्रतिदिन ऐसी बातें करते सुनते हैं कि "कहो उस्‍ताद पोस्‍ट तो बहुत अच्‍छी हाथ लगी, भला कुछ ऊपरी तरावट भी है?"

"हाँ, नसीबे का है वह मिली रहता है। भला यारों की अंटी पर चढ़ा वह बिना कुछ पूजे कहाँ जाता है!"

जिस महकमें में देखो, जिस दफ्तर में देखे, ऐसे सत्‍पुरुष बिरले ही मिलें जिनको इसका चस्‍का न पड़ा हो। विशेषत: रेल पर तो रिशवत बीबी ने नौवाबी ही मचा रखी है। बिना कुछ चढ़ाए पिंड ही छूटना कठिन है। बिचारे महाजन लोग, जिनको न सर्कार से अपन दु:ख कहने का साहस न आपस में एका, न कानून समझने की बुद्धि, न तो जाए कहाँ? माल रोज ही रेल पर लदा चाहै, बाहर से रोज ही कुछ आया चाहै, फिर जल में रह के मगर से बैर करने में गुजारा है? क्या करें? जहाँ राजदंड है, धर्मदंड है वहाँ यह समझ लिया कि एक रेलदंड भी सही। हमारी इस बात का प्रत्‍यक्ष प्रमाण यह है कि प्राय: सभी महाजनों की बहियों में "रेल खर्च खाते नाम" लिखा मिलेगा, जो नियत महसूल से कहीं अधिक होगा।

हम वहाँ के बड़े हाकिमों से विनय करते हैं कि जैसे रेल के द्वारा सर्वसाधारण को और सब प्रकार का आराम दिया जाता है वैसे ही इस दु:ख के निवारण का भी कुछ प्रबंध होना चाहिए जो कर्मचारियों के अत्‍याचार से इस महकमें का एक महा कलंक हो रहा है। प्राय: देखा गया है कि रेल के बड़े हाकिम अपने महकमे की बदइंतजामी के दूर करने में और हाकिमों से अधिक तत्‍पर रहते हैं, इसी से यह कष्‍ट दिया जाता है। आशा है कि हमारे निवेदन पर बहुत शीघ्र ध्‍यान देंगे।

बाबू साहबो! हम आपसे आशा करते हैं कि आप लोग हमारे इस लेख से अप्रसन्‍न न होंगे, क्‍योंकि हमारा प्रयोजन किसी के चिढ़ाने से नहीं है और न रेल से हमारी कोई निज की हानि है, पर हाँ अपने देश भाइयों का दु:ख सुख ज्‍यों का त्‍यों प्रकाश करना हमारा कर्तव्‍य है। आप लोग भी तो आखिर पढ़े लिखे समझार हैं। क्‍या अपने भाइयों की सहानुभूति (हमदर्दी) को आपका अंत:करण अच्‍छा न समझता होगा? आश्चर्य है जो न समझे। हमारा काम केवल कहने मात्र का है। करना न करना आपके आधीन है। परंतु शास्‍त्र के इस वचन पर ध्‍यान दीजिए कि "अवश्‍यमेवभोक्‍तव्‍यं कृतंकर्मशुभाशुभम्।"


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में प्रतापनारायण मिश्र की रचनाएँ